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मानसरोवर--मुंशी प्रेमचंद जी


घरजमाई मुंशी प्रेम चंद
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हरिधन भी पड़ा अन्दर-ही-अन्दर सुलग रहा था कि दोनों साले बाहर आये और बड़े साहब बोले- भैया, उठो, तीसरा पहर ढल गया, कब तक सोते रहोगे? सारा खेत पड़ा हैं।
हरिधन चट से उठ बैठा और तीव्र स्वर में बोला - क्या तुम लोगों में मुझे उल्लू समझ लिया हैं?
दोनों साले हक्का-बक्का हो गये। जिस आदमी ने कभी जबान नहीं खोली हमेशा गुलामों की तरह हाथ बाँधे हाजिर रहा, वह आज एकाएक इतना आत्माभिमानी हो गया, यह उनको चौका देने के लिए काफी था। कुछ जवाब न सूझा।
हरिधन ने देखा, इन दोनों के कदम उखड़ गये हैं, तो एक धक्का और देने की प्रबल इच्छा को न रोक सका। उसी ढंग से बोला- मेरी भी आँखें हैं, अन्धा नहीं हूँ, न बहरा ही हूँ। छाती फाड़कर काम करूँ और उस पर भी कुत्ता समझा जाऊँ, ऐसे गधे कहीं और होंगे।
अब बड़े साले भी गरम पड़े- तुम्हें किसी ने यहाँ बाँध तो नही रखा हैं।
अबकी हरिधन लाजवाब हुआ। कोई बात न सूझी।
बड़े ने फिर उसी ढंग से कहा- अगर तुम यह चाहो कि जन्म-भर पाहुँने बने रहो और तुम्हारा वैसा ही आदर-सत्कार होता रहेस तो हमारे बस की बात नहीं हैं।
हरिधन ने आँखें निकाल कर कहा- क्या मैं तुम लोगों से कम काम करता हूँ?
बड़े- यह कौन कहता हैं?
हरिधन - तो तुम्हारे घर की यही नीति हैं कि जो सबसे ज्यादा काम करे, वही भूखों मारा जाय?
बड़े- तुम खुद खाने नहीं गये। क्या कोई तुम्हारे मुँह में कौर डाल देता?
हरिधन नें होठ चबाकर कहा- मैं खुद खाने नही गया! कहते तुम्हें लाज नही आती।
'नहीं आयी थी बहन तुम्हें बुलाने?'
हरिधन की आँखों में खून उतर गया, दाँत पीसकर रह गया।
छोटे साले ने कहा- अम्माँ भी आयी थी। तुमने कह दिया, मुझे भूख नही हैं, तो क्या करती।
सास भीतर से लपकी चली आ रही थीं। यह बात सुनकर बोली- कितना कहकर हार गयी, कोई उठे न तो मैं क्या करूँ!
हरिधन ने विष, खून और आग से भरे हुए स्वर में कहा- मैं तुम्हारे लड़कों का जूठा खाने के लिए हूँ! मै कुत्ता हूँ कि तुम लोग खाकर मेरे सामने रुखी रोटी का टुकड़ा फेंक दो?
बुढ़िया- नें ऐंठकर कहा - तो क्या तुम लड़कों की बराबरी करोगें?
हरिधन परास्त हो गया! बुढ़िया के एक ही वाक्प्रहार ने उसका का काम तमाम कर दिया । उसकी तनी हुई भवें ढीली पड़ गयी, आँखों की आग बुझ गयी, फड़कते हुए नथने शान्त हो गये। किसी आहत मनुष्य की भाँति वह जमीन पर गिर पड़ा। 'क्या तुम मेरे लड़कों की बराबरी करोगे?' यह वाक्य एक लम्बे भाले की तरह उसके हृदय में चुभता चला जाता था - न हृदय का अन्त था, न उस भाले का!

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